
आधुनिक काल को हम वैज्ञानिक युग के रूप में मान्यता देते हैं। विज्ञान ने मानव के सामर्थ्य एवं सीमाओं का विस्तार किया है। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच गहरा संबंध होता है। आज अनगिनत उपकरण व डिवाइस हमारे दैनिक जीवन के अंग बन चुके हैं। लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब सा विरोधाभास दिखाई देता है। एक तरफ तो हम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली खोजों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। मगर दूसरी तरफ कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों ने भी हमारे जीवन और समाज में जगह बनाए हुए हैं। हमारे समाज की शिक्षित व अशिक्षित दोनों ही वर्गों की बहुसंख्य आबादी निर्मूल एवं रूढ़िगत मान्यताओं की कट्टर समर्थक है। आज का प्रत्येक शिक्षित मनुष्य वैज्ञानिक खोजों को जानना, समझना चाहता है। वह प्रतिदिन टीवी, समाचार पत्रों एवं जनसंचार के अन्य माध्यमों से नई खबरों को जानने का प्रयास करता है। तो दूसरी तरफ यही शिक्षित लोग कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों के भी शिकार बन जाते हैं।
वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रमक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कशीलता, धर्मनिरपेक्षता, मानवतावाद और समाजवाद की बजाय अवैज्ञानिकता, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास और असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा रहा है। शिक्षित लोगों से लेकर अशिक्षित लोगों तक अंधविश्वासों और पाखंडों के समर्थक हैं, यहाँ तक हमारे देश के कई वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी इसके अपवाद नहीं हैं ; जो चकित करता है।
आखिर क्यों, विज्ञान के इतने विकास के बाद भी हम काल्पनिक भूत-प्रेतों, जादू-टोना, पुनर्जन्म, फलित ज्योतिष एवं अन्य मिथकों व अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं? क्यों लड़की के जन्म पर लोग महिलाओं की ह्त्या करते हैं? जबकि वर्षों से हमारी पुस्तकों में यह पढ़ाया जा रहा है कि लड़की या लड़के के जन्म के लिए माँ जिम्मेदार नहीं होती है, राहू-केतु कोई ग्रह नहीं हैं, ग्रहण सामान्य खगोलीय घटना है, भूत-प्रेत मन की बीमारियां हैं, फलित ज्योतिष व वास्तु शास्त्र विज्ञान नहीं हैं, आध्यात्मिक व दिव्य शक्ति जैसी कोई भी चीज नहीं होती है बल्कि वह कुछ ज्योतिषियों, तांत्रिकों, साधुओं और पाखंडी बाबाओं की काली कारस्तानी है आदि-इत्यादि। इसके बावजूद कुछ लोग अंधविश्वासों, रूढ़िवादी मान्यताओं एवं कुरीतियों का समर्थन करते नज़र आते हैं।
हमारी इन तमाम बुराइयों और कुरीतियों की जड़ में है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर यकीन करने की प्रवृत्ति अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पूर्णतया अभाव। सचमुच हमारे देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की इतनी भारी कमी है कि हम भौंचक्के रह जाते हैं, फिर चाहें वह फलित ज्योतिष का समर्थन हो, पाखंडी बाबाओं का अनुसरण हो या फिर पुनर्जन्म और भूत-प्रेत में यकीन करनेवालों की संख्या हो!
वैज्ञानिक दृष्टिकोण मूलतः एक ऐसी मनोवृत्ति या सोच है जिसका मूल आधार किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित कार्य-कारण को जानने की प्रवृत्ति है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करती है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शर्त है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर विश्वास न करना या उपस्थित प्रमाण के अनुसार ही किसी बात पर विश्वास करना।
1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को इस बात का भलीभांति बोध था कि वैज्ञानिकों सहित हमारे लोगों को तर्कहीनता, धार्मिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वासों ने जकड़ा हुआ है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्त्व को पंडित नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होनें इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था। पं. नेहरु ने ही हमारे शब्द-ज्ञान में ‘साइंटिफिक टेम्पर’ (वैज्ञानिक मनोवृत्ति) शब्द जोड़ा। वे डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि-
“आज के समय में सभी देशों और लोगों के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य और अपरिहार्य है। लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि साहसिक है लेकिन बेहद जरूरी भी है और जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है यानी सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जाँचे-परखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत की बजाय, प्रेक्षित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना- यह सब नितांत आवश्यक है। केवल इसलिए नहीं कि इससे विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा, लेकिन स्वयं जीवन के लिए और इसकी बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी।…..वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है, जिस पर उसे अपनी जीवन-यात्रा करनी चाहिए। यह दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो बंधन-मुक्त है, स्वतंत्र है। हम एक वैज्ञानिक युग में रह रहे हैं, कम-से-कम बताया तो यही जाता है, लेकिन यह जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण है वह जनता में या उसके नेताओं में कहीं पाया जाता हो, इसके प्रमाण हैं भी, तो बहुत कम।”
प्राकृतिक घटनाओं, क्रियाओं और उनके पीछे के कारण ढूढ़ने की मानवीय जिज्ञासा ने एक सुव्यवस्थित विधि को जन्म दिया जिसे हम ‘वैज्ञानिक विधि’ या ‘वैज्ञानिक पद्धति’ के नाम से जानते हैं। सरल शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक जिस विधि का उपयोग विज्ञान से संबंधित कार्यों में करते हैं, उसे वैज्ञानिक विधि कहते हैं। वैज्ञानिक विधि के प्रमुख पद या इकाईयां हैं : जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान। विज्ञान के किसी भी सिद्धांत में इन पदों या इकाईयों की उपस्थिति अनिवार्य है। विज्ञान का कोई भी सिद्धांत, चाहे वह आज कितना भी सही लगता हो, जब इन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता है तो उस सिद्धांत का परित्याग कर दिया जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हैं। आप सोच रहे होगें कि इस वैज्ञानिक विधि का उपयोग केवल विज्ञान से संबंधित कार्यों में ही होता होगा, जैसाकि मैंने ऊपर परिभाषित किया है। परंतु ऐसा नहीं है, यह हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है। दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है। इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब महज परखनली को ताकना, इस चीज और उस चीज को मिलाना और छोटी या बड़ी चीजें पैदा करना नहीं है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब है दिमाग को और ज़िंदगी के पूरे ढर्रे को विज्ञान के तरीकों से और पद्धति से काम करने के लिए प्रशिक्षित करना।
इसलिए प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रयास करे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किये। इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा वर्ष 1958 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना। उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था।
हमारे संविधान के अनुच्छेद-51 (क) में यह उल्लिखित है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया होगा कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतनासम्पन्न समाज का निर्माण होगा, परंतु वर्तमान सत्य इससे परे है। जब अपने कार्यक्षेत्र में विज्ञान की आराधना करने वाले वैज्ञानिकों का प्रत्यक्ष सामाजिक व्यवहार ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत हो, तो बाकी बुद्धिजीवियों तथा आम शिक्षित-अशिक्षित लोगों के बारे में क्या अपेक्षा कर सकते हैं!
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है। गौरतलब है कि निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आरम्भ तब से माना जाता है, जब एंथेस के धर्म न्यायाधिकरण ने सुकरात पर मुकदमा चलाया था। सुकरात का कहना था कि ‘सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए भलीभांति प्रयत्न किया जाए ; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सच्चाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।’ रूढ़िवादी परम्पराओं पर प्रहार करने के कारण एथेंस के शासक की नजरों में सुकरात खटकने लगे थे। उन्होंने सुकरात को जहर पीने या अपने मत को त्याग कर राज्य छोड़ देने का दंड सुनाया। अपने विचारों से समझौता न करते हुए सुकरात ने खुशी-ख़ुशी जहर का प्याला पीकर अपनी जान दे दी।
उसके बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण व बौद्धिकता के सफल प्रवक्ताओं का उदय यूरोप में नवजागरण काल के दौरान हुआ। रोजर बेकन ने अपनी छात्रावस्था में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आधारशिला रखी। उन्होंने अरस्तु के सिद्धांतों को प्रयोगों द्वारा जाँच-पड़ताल की वकालत की, जिसके कारण बेकन को आजीवन कारावास की सजा मिली। लेकिन विज्ञान की आधुनिक विधि की खोज फ्रांसिस बेकन ने की कि प्रयोग करना, सामान्य निष्कर्ष निकालना और आगे और प्रयोग करना। रोजर बेकन, ब्रूनों, गैलीलियो के साथ ही धर्मगुरुओं द्वारा वैज्ञानिकों के उत्पीड़न का सिलसिला शुरू हुआ था। जब डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, तब उन्हें भी चर्च के प्रकोप का सामना करना पड़ा था, लेकिन आख़िरकार सत्य की ही विजय हुई और चर्च ने भी विकासवाद के सामने सिर झुका दिया।
यूरोप में वैज्ञानिक जागृति की जो हवा चली, भारत में अंग्रेजी राज के कारण हमें वहां की विज्ञान एवं तकनीकी उन्नति को समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और वहां की अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो हमारे मन में रच-बस गई मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हमने खिड़की से बाहर फेंक दिया। हमारे समाज ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को तो अपनाया मगर उसने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला!
हमारे देश मे बहुत से लोग विज्ञान और तकनीक में अंतर नहीं कर पाते। वे विज्ञान को तकनीक या तकनीक को ही विज्ञान समझ लेते हैं। विज्ञान वह आधारभूत ज्ञान है जो प्रयोग, अवलोकन और निष्कर्ष पर आधारित होता है। विज्ञान का मतलब है प्रकृति के बारे में प्रश्न पूछना और उस प्रश्न का उत्तर बिना किसी पूर्वाग्रह के ढूंढना। जबकि तकनीक वैज्ञानिक जानकारी का सामाजिक उपयोगिता में होनेवाला इस्तेमाल है। यह बेहद अजीब बात है कि हमारे यहाँ युगों पुराने अंधविश्वास अत्याधुनिक तकनीक के साथ खड़े दिखाई देते हैं। अक्सर हमें यह विरोधाभास देखने को मिल जाता है। स्मार्टफोन और लैपटाप से लैस व्यक्ति भी अंधविश्वासपूर्ण घटनाओं को बिना जांच-पड़ताल के स्वीकार लेता है।
आज हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह देख रहे हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त तकनीकों को तो स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके पीछे के वैज्ञानिक चिंतन को अस्वीकार कर देते हैं। इस दुहरे बर्ताव के पीछे एक ठोस कारण यह है हमारे समाज में तकनीक का स्तर जितना ऊंचा हो गया है, उतने ही उच्च स्तर का विज्ञान लोगों को नहीं मिला है। हमारे देश में आधुनिक विज्ञान अंग्रेजों के जरिए पहुंचा, इसलिए सूर्यकेंद्री सिद्धांत और विकासवाद जैसे सिद्धांतों पर हमारे देश में उतनी खलबली नहीं मची, जितनी यूरोप में मची थी। यहाँ पर विज्ञान जीवन का दृष्टिकोण नहीं बल्कि भौतिक उन्नति का प्रभावशाली साधन बना। कहा जाता है कि सूचना अज्ञान को दूर करती है, मगर भारत में ऐसा नहीं हुआ!
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एन.सी.एस.टी.सी.) के तत्वाधान में हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1928 में इसी दिन सर सी. वी. रामन ने अपनी खोज ‘रामन प्रभाव’ की आम घोषणा की थी। इसी खोज के लिए उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। इसलिए इस महत्वपूर्ण खोज के याद में विज्ञान संस्थानों, विज्ञान अकादमियों, स्कूल और कॉलेजों में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस का आयोजन किया जाता है। इस प्रकार के आयोजन का मुख्य उद्देश्य छात्रों को विज्ञान के प्रति आकर्षित करना, जनसाधारण को वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रति जागरूक बनाना तथा उनके बीच वैज्ञानिक मनोवृत्ति का प्रसार करना होता है। लंबे समय से अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार में प्रयत्नशील हैं और काफी अर्से से राष्ट्रीय विज्ञान दिवस, जन-विज्ञान जत्था, विज्ञान कांग्रेस जैसे कार्यक्रम भी आयोजित होते आ रहे हैं। मगर क्या हम विश्वासपूर्वक यह कह सकते हैं कि जनसाधारण की विज्ञान में दिलचस्पी बढ़ी है? अंधविश्वासों और दक़ियानूसी विचारों में कमी आई है? क्या हमारे सामाजिक जीवन और विज्ञान के बीच तालमेल बढ़ा है? खेद की बात यह है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के स्तर पर हम आज भी कंगाल हैं।
आज के हालात को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि आजादी के बाद की सरकारें अपना दायित्व अच्छे से नहीं निभा पाई हैं। शुरुआती दौर में ऐसे संस्थान जरूर बनाए गए जिनका काम देश में वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देना था, मगर ये संस्थान भी कागजी कार्रवाइयों से आगे नहीं बढ़ पाए। देशवासियों की सोच को सीधे प्रभावित करने वाली जीवनदशाएं बदलें इसका प्रयास नहीं किया गया। कुछ लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव आए, समृद्धि भी आई कुछ तबकों में, लेकिन गरीबी और लाचारी की मौजूदगी बनी रही आसपास।
ऐसे में जो गरीबी में बने रहे वे किसी चमत्कार से अमीरी की चमकती दुनिया में पहुंच जाने की लालसा पाले रहे तो जो समृद्धि के करीब पहुंच चुके थे, वे भी वापस गरीबी-लाचारी के चंगुल में चले जाने की आशंकाओं से घिरे रहे। आशंका, असुरक्षा की यह निरंतरता अंधविश्वास के लिए खाद-पानी की निर्बाध सप्लाई का सबसे बड़ा स्रोत बनी रही। इस स्थिति में एक बड़ा बदलाव पिछले कुछ समय से यह आया है कि जिन संस्थाओं को वैज्ञानिक चेतना का फैलाव करना था, वे भी उलटी दिशा में चलती दिखाई देने लगी हैं।
एक सवाल यह भी उठता है कि आम जनमानस के मन-मस्तिष्क में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बैठाने में हमारे देश की मीडिया का कीर्तिमान क्या है? अपने दौर के प्रसिद्ध पत्रकार और ‘मेनस्ट्रीम’ के संपादक निखिल चक्रवर्ती ने इस सवाल के जवाब में कहा था कि-
“यह एक ऐसा सवाल है जो हमारे जनसंचार माध्यमों के नृशंसतापूर्वक तकनीकी क्रांति की परिधि में खिंचते जाने के साथ ही महत्व ग्रहण करता रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अवधारणा के लिए व्यापक सामाजिक आधार के बिना नई तकनीक की स्थापना एक तरफ जनता के भीतर प्रगतिविरोधी विचारों के प्रभुत्व और दूसरी तरफ आयातित उपनिवेशवादी संस्कृति को चिरस्थायी बनाने में ही सहायक हो सकती है। सचमुच एक अजीब विरोधाभास- मीडिया की अपनी निगाहें इक्कीसवीं सदी की ओर होंगी, लेकिन लोगों तक वह जो संदेश पहुंचाएगा वह पंद्रहवी सदी या फिर उन्नीसवीं सदी के घिसे-पिटे मूल्य होंगे।”
ध्यान देने की बात यह है कि बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में इक्कीसवी सदी को लेकर जिस संभावना को लेकर निखिल चक्रवर्ती सशंकित थे, वह आज के दौर में वास्तविकता का रूप अख़्तियार कर चुका है!
बहरहाल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव निजी तौर पर भी हमारे जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। हमें अंधविश्वास के उन गड्ढों की ओर ले जाता है जो अक्सर पूरे परिवार की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं। समय-समय पर आने वाली विभिन्न बाबाओं की हरकतों की खबरें इसका उदाहरण हैं और इन बाबाओं की विशाल शिष्य संख्या इसका सबूत। खास बात यह कि जरा सी वैज्ञानिक चेतना ऐसे गड्ढों से बचाने के लिए काफी हो सकती है। अपने जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखकर ही राष्ट्रीय विज्ञान दिवस जैसे आयोजनों की सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सबसे मार्मिक तत्व है कि जब प्रश्न उठाने की जरूरत हो तो चुप्पी साधने की बजाय सवाल करें। सवाल उठाने की भावना आस्था और अंधविश्वास के खिलाफ है। आइए हम अब से कोई 2500 साल पहले हुए गौतम बुद्ध के उस उपदेश को याद करें, जिसमें उन्होने जांच-पड़ताल की भावना के महत्व पर ज़ोर दिया था :
“किसी भी चीज पर विश्वास मत करो
सिर्फ इसलिए कि वह तुम्हें बताई गई है
या इसलिए कि वह पारंपरिक है
या इसलिए क्योंकि तुमने उसकी कल्पना की है
अपने गुरु की बात पर विश्वास मत करो
सिर्फ उनका सम्मान करने के लिए
लेकिन सम्यक निरीक्षण और विश्लेषण के बाद
सभी के हित लाभ
और कल्याण के लिए
तुम्हें जो अच्छा लगे
उस मत पर विश्वास करो, उस पर बने रहो
और उसे ही अपना मार्गदर्शक मानो।”