
भारत जैसे देश में जहां ऊंचे स्तर पर हजारों वर्षों से सभ्यता अक्षत रूप से बनी रही है, जहां संगीत-कला-साहित्य की परंपराएं प्राचीन काल से चलती आईं हैं, जहां असंख्य धार्मिक आंदोलनों और दार्शनिक पंथों ने सामाजिक परिवर्तनों को अंजाम दिया है, वहाँ विज्ञान का क्या स्थान था? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भारत की उपलब्धियां निश्चित रूप से विस्मयकारी थीं और आधुनिक विज्ञान के रास्ते पर बहुत आगे बढ़ चुकी दुनिया के ज्ञान का एक सिरा प्राचीन भारत में भी खुलता है। हालांकि ऐसा देखा गया है कि वर्तमान में जब भी प्राचीन भारतीय विज्ञान की चर्चा होती है तो भारतीय जनमानस दो समूहों में विभाजित हो जाता है। एक समूह के मुताबिक हमारे पूर्वजों ने प्राचीन काल में ही सबकुछ खोज लिया था, वहीं दूसरे समूह के मुताबिक प्राचीन भारतीय वांड्मय में कुछ भी वैज्ञानिक नहीं है।
पहले समूह के अनुसार यदि प्राचीन ग्रंथों जैसे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि की सही ढंग व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जब इसपर गहन चर्चा की जाती है तो भारतीय जनमानस द्वारा अपने दावे की पुष्टि के लिए प्राचीन ग्रंथों में दर्ज उपलब्धियों के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं, जैसे- विमान प्रौद्योगिकी, राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल का सिद्धांत, आपेक्षिकता सिद्धांत एवं क्वांटम यान्त्रिकी, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, इंटरनेट समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, भांति-भांति प्रकार के यंत्रोंपकरण वगैरह-वगैरह। एक आम हिन्दुस्तानी अपने पूर्वजों की उच्च कोटि की इन प्रौद्योगिकियों पर बेहद गर्व करता है, और उसे ये उपलब्धियां अपने गौरवपूर्ण स्वर्णिम इतिहास की झलक दिखाती प्रतीत होती है और वह यह मानता है कि जरुर हमारे पूर्वज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत रहे होंगे। वहीं दूसरे समूह के लोग प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों को बेतुका, छल-कपटपूर्ण और अप्रासंगिक मानते हैं।
तो हम किसे सही माने पहले समूह को या दूसरे समूह को? जैसाकि हम जानते हैं कि विज्ञान सूचनाओं एवं तथ्यों पर आधारित ज्ञान है। विज्ञान में किसी भी सिद्धांत को स्वीकार करने से पहले प्रमाणों की विश्वसनीयता की कठिन परीक्षा ली जाती है। इसमें सूचनाओं एवं तथ्यों का तार्किक एवं क्रमबद्ध विश्लेषण अनिवार्य है। यह शर्त पहले समूह की कपोल-कल्पनाओं पर लागू नहीं होती है। वहीं दूसरे समूह के लोगों में कट्टरता झलकती है। बिना प्रमाण, परीक्षण के किसी भी बात को मान लेना अवैज्ञानिक है, उसी प्रकार से प्रमाण, परीक्षण को नकार देना भी अवैज्ञानिक है। इसलिए हम इस लेख में पूर्वाग्रहों को दूर करते हुए प्राचीन साहित्य में जो कुछ वैज्ञानिक है, उसे निष्पक्ष ढंग से उजागर करने का संक्षिप्त प्रयास करेंगे। पहले हम उन दावों का विश्लेषण करेंगे जिससे यह पता चलता है कि हमारे पूर्वज वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न थे। उसके बाद हम उन दावों का विश्लेषण करेंगे जिनके मुताबिक आधुनिक विज्ञान की सभी खोजों को हमारे पूर्वजों ने पहले ही ढूंढ लिया था।
विज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन भारत का बहुमूल्य योगदान
हड़प्पा सभ्यता से इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिले है कि वह अतीत में वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से बेहद विकसित रही होगी। हड़प्पा सभ्यता के लोग कच्ची-पक्की इंटों और लकड़ी के अच्छे भवनों में रहते थे। वहां की नालियाँ ग्रीड पद्धति के अनुसार बनी थी। पुरातत्ववेत्ताओं को मोहनजोदड़ो से एक विशाल स्नानागार मिला है। हड़प्पा सभ्यता के स्थानों से कई तरह के बांट भी मिले हैं, जिनमें आश्चर्यजनक रूप से एकरूपता है। यहाँ की लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है। विद्वानों का अनुमान है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों को रेखागणित और अंक-गणित का अच्छा ज्ञान रहा होगा।
हमारे देश की आम हिंदू जनता को वेदों के बारे में बड़ी गलतफहमी है। बहुसंख्य जनता यह मानती है कि वेद विज्ञान के अक्षय भंडार है, परंतु हमे याद रखना चाहिए कि वेद लगभग साढ़े तीन हजार साल पहले की कृतियाँ हैं। इनमें उतना ही विज्ञान है जितना की तत्कालीन मानव समाज ने खोजा था। वैदिक साहित्य के चार प्रमुख अंगों – वेद, ब्राह्मण-ग्रंथ, उपनिषद तथा वेदांग से हमें वैदिक-कालीन समाज की वैज्ञानिक उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।
वैदिक काल की कोई भी लिपि नहीं थी, इसलिए वेदों को श्रुति कहा गया है। प्राचीन भारत में इन्हें रट-रटकर मौखिक रूप से प्रसारित करने की परम्परा थी। वैदिक ऋषियों को सूर्य, चन्द्र, ग्रहों एवं तारों की गतिविधियों का अच्छा ज्ञान था। परन्तु सूर्य, चन्द्र, ग्रहों और तारों की दूरियों के संबंध में बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। ऋग्वेद में 12 महीनों का चन्द्रवर्ष माना गया है। वैदिक ऋषियों को सात ग्रहों, 27 नक्षत्रों, खगोलीय परिघटना उत्तरायण-दक्षिणायण का ज्ञान था। वैदिक ऋषियों को ग्रहणों की बारंबारता का ज्ञान था, परन्तु ग्रहणों के कारणों का ज्ञान नहीं था। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वैदिक ऋषियों के ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बन्धित तर्कसंगत चिंतन का परिचय देता है।
वैदिक लोगों के रेखागणित से संबंधित ज्ञान का पहला प्रमाण ‘ब्रह्माण ग्रंथों’ में मिलता है। दरअसल ज्यामिति की उत्पत्ति स्वयं सिद्ध कथनों से नहीं हुई थी, बल्कि इसकी शुरुवात हुई थी यज्ञ वेदियों के निर्माण में आने वाली कुछ समस्याओं को सुलझाने के प्रयासों से। शुल्वसूत्रों में यज्ञों के प्रयोजन के अवसर पर बननेवाली वेदियों के बारे में जानकारी है। इन सूत्रों से हमें रेखागणित के सन्दर्भ में काफी जानकारी मिलती है। शुल्वसूत्रों में पाईथागोरस का प्रमेय भी मिलता है।
इतिहासकार पाँचवीं शताब्दी में आर्यभट प्रथम से लेकर बरहाविन शताब्दी में भास्कर द्वितीय तक के काल को सैद्धांतिक युग के नाम से जानते हैं। विज्ञान की दृष्टि से यह काल वैभव का युग है। इस काल में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, महावीर, नागार्जुन जैसे महान वैज्ञानिक हुए।
एक दंतकथा प्रसिद्ध है कि जब बंट्रेंड रसेल से यह पूछा गया कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत की सबसे महत्वपूर्ण देन क्या है, तो उन्होंने द्वयर्थक शब्द का प्रयोग करते हुए उत्तर दिया ‘जीरो’ यानी शून्य। शून्य प्राचीन भारत की सबसे महत्वपूर्ण देन है। शून्य के ही माध्यम से दाशमिक स्थानमान अंक पद्धति निकली। शून्ययुक्त यह अंक पद्धति भारत की विश्व को सबसे बड़ी बौद्धिक देन है।
भारत की स्वदेशी चिकित्सा प्रणाली को आयुर्वेद कहते हैं। आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ है- लंबी उम्र प्राप्त करने का विज्ञान। आयुर्वेद को विकसित करने में अनेक ऋषियों का योगदान है। प्राचीन भारत में अत्यधिक मात्रा में चिकित्सा साहित्य की रचना हुई थी, परंतु समय की मार से जो दो प्रमुख ग्रंथ सुरक्षित रह गए वे हैं- चरक संहिता और सुश्रुत संहिता। चरक संहिता मुख्यतः काय-चिकित्सा का ग्रंथ है, वहीं सुश्रुत संहिता मुख्यत: शल्य चिकत्सा (सर्जरी) का ग्रंथ है। वास्तव में प्लास्टिक सर्जरी के आदि-आविष्कर्ता सुश्रुत हैं।
बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की गईं उपलब्धियां
यह भी कहा जाता है इसके प्रमाण प्राचीन ग्रंथों जैसे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि से प्राप्त हो सकते हैं। परंतु ऐसे दावों को काव्य-रचनाओं पर आधारित करना पूर्णतया अतर्कसंगत है क्योंकि वर्तमान ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह पता चला है कि ये साहित्यिक रचनाएँ थीं, नाकि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शोधपत्र। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री जयंत नार्लीकर के अनुसार ‘ये तो ऐसा ही होगा कि कोई ग्रिम की परीकथाओं को पढ़कर यह निष्कर्ष निकाले कि 17वी से 19वी सदी में यूरोप के लोग जादूगरी और प्रेतकलाओं में माहिर थे।’ आसाधारण दावों को सिद्ध करने के लिए आसाधारण प्रमाणों की आवश्यकता होती है।
यदि यह मान भी लें कि वेदों में विज्ञान का अक्षय भंडार समाया हुआ है तो यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अब तक हम क्या कर रहे थे? तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अबतक वेदों के जो टीकाकार, भाष्यकार हुए वे सभी अल्पज्ञानी थे क्योंकि उनको विज्ञान के इस अक्षय भंडार के बारे में पता ही नहीं चला? उन्होंने वेदों का अध्ययन करके कोई वैज्ञानिक आविष्कार किया ही नहीं? विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि-शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञ-ज्योतिषी नहीं खोज पाएं, उसको खोजने का दावा लोग करने लगे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
यह भी कहा जाता है कि वैदिक ज्ञान अंतिम सत्य है तथा वैदिक ऋषियों ने अपने महाशक्तिशाली दिव्यदृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्मांड का अवलोकन कर लिया था। उनकी दिव्यदृष्टि कितनी शक्तिशाली थी, इसे कृत्तिका नक्षत्र के उदाहरण से जाना जा सकता है। वैदिक ऋषियों को कृत्तिका नक्षत्र में केवल सात तारे दिखाई देते थे, जबकि आधुनिक दूरबीनों से पता चला है कि इस नक्षत्र में तीन सौ से अधिक तारे हैं। देवयानी आकाशगंगा हमें कोरी आँखों से कभी-कभार दिखाई देती है, परन्तु वैदिक ऋषि इसे भी नहीं देख पाए जबकि यह हमसे सर्वाधिक नजदीक की आकाशगंगा है। इसी से पता चलता है कि वैदिक ऋषियों की दिव्यदृष्टि कितनी शक्तिशाली थी। जहाँ तक अंतिम सत्य का सवाल है तो विज्ञान कभी भी अंतिम सत्य जानने का दावा नहीं करता है। विज्ञान में कोई भी सिद्धांत परिपूर्ण नहीं होता है। उसमें सुधार होता रहता है और सुधार होते रहना ही वैज्ञानिक प्रगति का लक्षण है।
लोग यह दावा भी करते हैं कि वेदों में परमाणु बम और मिसाइल बनाने की विधि दी हुई। असल में वेदों में परमाणु बम बनाने की विधि खोजना कोरी दाकियानूसी है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। यहाँ पर यह सवाल उठता है कि यदि वैदिक काल में नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत एवं उच्च प्रौद्योगिकी उपलब्ध था तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत् या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें प्रयोग में लाना ज्यादा आसान है। परंतु वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहाँ तक इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गाँव-गाँव में बिजली उपलब्ध है। तकनीकी की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं।
अक्सर ऐसे भी दावे सुनने को मिलते हैं कि वैदिक काल के ऋषि यह जानते थे कि सूर्य की ऊर्जा का स्रोत तापनाभिकीय संलयन है। अगर हम इस बात स्वीकार कर भी लें तो भी इससे यह पता नहीं चलता कि सूर्य की आंतरिक संरचना कैसी है, किस तरह से यह संतुलित रहता है या किस तरह इसकी ऊर्जा इसके केंद्र से सतह तक आती है आदि। इन सारी बातों को जानने के लिए वर्तमान में हम गुरुत्वाकर्षण, विद्युत् और चुम्बकत्व और द्रवस्थैतिकी का सहारा लेते हैं। क्या वेदों में इसका विवरण मिलता है? उत्तर है-नहीं।
वेदों और पुराणों में क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों को भी ढूँढना कोरी दक़ियानूसी है। क्वांटम सिद्धांत की कल्पनाओं से भारतीय दर्शन की समानता सतही मात्र है। क्वांटम सिद्धांत को केवल गणित की भाषा में ही समझाया जा सकता है और निष्कर्ष प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किए जाते हैं। क्या ऐसी कोई भी कल्पना पुराणों में रची गई है जो प्रयोग द्वारा जाँची जा सके? या फिर निष्कर्ष यूं ही हवा में निकाले गए हैं?
कुछ लोग कहते हैं कि प्राचीन भारत में विमान बनाने की उन्नत प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी। परंतु हमें इसे सिद्ध करने के लिए सम्पूर्ण तकनीकी साहित्य की आवश्यकता है, रामायण जैसी सतही काव्यात्मक विवरण की नहीं। दरअसल, विमान एक जटिल उत्पाद है, इसके निर्माण में अत्यधिक उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। अगर हमें यह सिद्ध करना है कि प्राचीन भारत में विमान प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी, तो विमान के चित्र, बैठे हुए यात्रियों के तस्वीर दिखाना भ्रामक हो सकता है जबकि सिद्ध करने के लिए यह ढूढ़ना पड़ेगा कि क्या उस समय वायुगतिकी का सिद्धांत, विमान बनाने का डिजाईन, विमान की बॉडी बनाने हेतु सम्मिश्र का निर्माण आदि का ज्ञान उपलब्ध था। इन सभी तकनीकी विवरणों के अभाव में यह दावा करना कि रामायण काल के लोगों को विमान प्रौद्योगिकी का ज्ञान था गलत है।
‘वैदिक गणित’ नामक पुस्तक में जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री भारती कृष्ण तीर्थजी महाराज ने कई गणितीय सूत्रों का वर्णन किया है। इनके बारे में उनका कहना है कि उन्होंने अथर्ववेद के परिशिष्ट से सोलह सरल गणितीय सूत्र एवं तेरह उपसूत्र प्राप्त किये हैं। परंतु आजतक अथर्ववेद के किसी भी परिशिष्ट में ये सूत्र व उपसूत्र प्राप्त नहीं हुए हैं। इससे वैदिक गणित के वैदिक होने पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि यह दावा कि वेदों में या प्राचीन भारत में हमारे पूर्वजों ने आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कारों को खोज लिया था, प्रमाणिकता के कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। आज आक्रमक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश होती है कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। जबकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढ़ियों का होता है।
One reply on “प्राचीन भारत में विज्ञान : आधी हकीकत, आधा फसाना!”
एक सुंदर लेख है।सन्तुलित लिखा है।हमें उन सामाजिक व भौतिक परिस्थितियों को भी रेखांकित करना चाहिए जिनके चलते हम उस ऊंचे मुकाम पर थे।क्या हुआ कि हम पिछड़े।