लेखक- श्री सुभाष चंद्र लखेड़ा  

राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी का कहना था, ” स्‍वच्‍छता आजादी से महत्‍वपूर्ण है।” बापू के इस कथन से स्वच्छता के  महत्‍व को समझा जा सकता है। स्वच्छता अपनाने से व्यक्ति रोग मुक्त रहता है और राष्ट्र निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में स्वच्छता अपनानी चाहिए और अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित  करना चाहिए। जो लोग सार्वजनिक स्थानों में गंदगी फैलाते हैं, वे समाज और देश को नुकसान पहुंचाते हैं।

सामान्यतया हम आँखों से अपने आसपास के परिवेश की स्वच्छता का अनुमान लगाते हैं। किसी ज़माने में स्वच्छता को जांचने के लिए अपनी आँखों पर भरोसा करना कुछ हद तक उचित था लेकिन आज हम अपने पर्यावरण यानी जल, जमीन और हवा की जांच सिर्फ आँखों से नहीं कर सकते हैं। बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के कारण जल, जमीन और वायु की स्वच्छता को जो घटक नुकसान पहुंचा सकते हैं, उन सभी को कोरी आंखों से देख पाना नामुमकिन है।

बहरहाल, आज हम जैव संवेदकों के उपयोग से पर्यावरण के लिए नुकसानदेह उन सूक्ष्म कारकों को पहचान सकते हैं जिन्हें आंखों से देख पाना संभव नहीं है। पर्यावरण की स्वच्छता को बनाए रखने में जैवसंकेतकों का उपयोग भी किया जा रहा है। जैवसंकेतकों में ऐसे जीवों का उपयोग किया जाता है जो वातावरण में होने वाले नुकसानदेह बदलावों का संकेत देते हैं। उदाहरण के लिए जल स्रोतों को स्वच्छ बनाये रखना मानव सहित सभी जीव – जंतुओं और वनस्पतियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है।

बहुत से जलीय जंतु जैसे मछलियां, केकड़े, सील, व्हेल, मेढ़क और कुछ विशेष किस्म के कीड़े – मकोड़ों का जल की स्वच्छता का अनुमान लगाने के लिए जैवसंकेतकों के रूप में उपयोग किया जा रहा है। इनके शारीरिक ऊतकों का परीक्षण करने से जल में मौजूद नुकसानदेह धातुओं और रसायनों का पता लगाया जा सकता है।

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के अनुसार अस्सी प्रतिशत रोगों का मूल कारण प्रदूषित पानी है जो अपर्याप्‍त स्‍वच्‍छता और सीवेज निपटान विधियों में मौजूद खामियों  का परिणाम है। पिछले कुछ वर्षों से सीवेज को उपचारित करने वाले सयंत्रों में मल – जल की शुद्धि के लिए ऐसे जैविक उपाय अपनाये जाते हैं जिनमें मल – जल में मौजूद गंदगी को हटाने के लिए सूक्ष्म जीवों का इस्तेमाल किया जाता है।

अब से दो दशक पूर्व  वर्ष पूर्व रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन ने अत्यधिक ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में शौच से जुड़ी समस्याओं से निपटने के लिए जैव पाचन तकनीक पर आधारित  ऐसे जैविक शौचालय बनाने में सफलता पाई जिनमें मल उस शौचालय संयंत्र में मौजूद सहजीवी सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित होकर कार्बन डाइऑक्साइड गैस, जल और मीथेन में तब्दील हो जाता है। ये खास किस्म के शौचालय गंध-रहित और पर्यावरण सम्मत हैं।

स्वच्छता से जुड़ा एक अन्य सवाल कृषि कार्यों से जुड़ा है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या को भोजन मुहैया करने के लिए भूमि से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों एवं जहरीले कीटनाशकों का उपयोग किया जाता रहा है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब होती है एवं वातावरण प्रदूषित होता है। इन समस्याओं से निपटने के लिये विगत वर्षों से जैविक खेती करने की सिफारिश की जा रही है।

“जैविक खेती” एक ऐसी पद्धति है जिसमें अकार्बनिक रसायनों से बनाई खाद और कीटनाशियों का प्रयोग कतई नहीं किया जाता है। जैविक उपायों से खेती करने से मिट्टी  प्रदूषित नहीं होती है। इसमें हरी खाद, कम्पोस्ट खाद, गोबर की खाद और वर्मी कम्पोस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। जैविक कीटनाशक पर्यावरण और जीवों को क्षति नहीं पहुंचाते हैं। इसमें गौमूत्र, नीम पत्ती की घोल, निबोली, खली, मठ्ठा, मिर्च, लहसुन, लकड़ी की राख, नीम और  करंज खली आदि का इस्तेमाल किया जाता है।

पिछले कुछ दशकों से प्लास्टिक के कचरे से निपटना पूरी दुनिया के लिए एक चिंता का विषय बन चुका है। यूं ऐसी ख़बरें आती रहती हैं कि वैज्ञानिक ऐसे प्लास्टिक बनाने के सन्निकट हैं जो कुछ समय बाद दूसरे कई कार्बनिक पदार्थों  की तरह अपघटित होकर सुरक्षित रसायनों में तब्दील हो जाएंगे लेकिन अभी यह बात एक दूर की कौड़ी लगती है।

प्लास्टिक से बचने का सबसे सरल उपाय यही है कि एक तो इसका पुनःचक्रण होता रहे और दूसरे प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर जैविक पदार्थों यानी कागज और सूती कपड़ों से बनी थैलियों का उपयोग किया जाए। इधर सरकार ने इस संबंध जो कदम उठाए हैं, वे हमें कुछ हद तक इस चिंता से मुक्त करने में सहायक होंगे। इसकी सफलता में जनता की भागेदारी बेहद जरूरी है।

कुल मिलाकर, स्वच्छता को बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले जैविक उपायों में आज भी सर्वाधिक  महत्वपूर्ण वृक्षारोपण कार्यक्रम है। पेड़ों से जहां एक ओर हमारी कई बुनियादी जरूरतें पूरी होती हैं, वहीं दूसरी ओर ये हमारे वायुमंडल को साफ़ बनाए रखने में मददगार होते हैं।

वायु में ऑक्सीजन गैस की मात्रा को इष्टतम स्तर पर बनाये रखने के लिए हमारे चारों तरफ हरियाली होनी चाहिए। गौरतलब  है कि नवीनतम जैव तकनीकों के इस्तेमाल से अब कल – कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं में विषाक्त और पर्यावरण को दूषित करने वाले रसायनों की मात्रा पर अंकुश लगाया जा सकता है। इतना जरूर है कि स्वच्छता में रूचि  रखने वाले सभी लोगों को  यह अहसास दिलाना होगा कि हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल ऐसे करें ताकि उससे हमारा पर्यावरण प्रदूषित न हो।

————————————————————————

श्री सुभाष चंद्र लखेड़ा

सी – 180, सिद्धार्थ कुंज, सेक्टर – 7,

प्लॉट  नंबर – 17, द्वारका, नई दिल्ली – 110075

Editor, the Credible Science Pradeep's name is definitely included in the science communicators who have made their mark rapidly in the last 8-9 years. Pradeep is writing regularly in the country's leading newspapers and magazines on various subjects of science.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *