
भारत में प्रतिवर्ष 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल हॉकी के महान जादूगर मेजर ध्यानचंद की स्मृति में ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ मनाया जाता है। मेजर ध्यानचंद के बारे में कहा जाता है कि उनकी स्टिक पर आई गेंद गोल करके ही लौटती थी। उन्हीं के नेतृत्व में भारतीय हॉकी टीम लगातार तीन बार ओलंपिक विजेता बनी थी। जब उनके खेल से प्रभावित होकर जर्मनी शासक हिटलर ने उन्हें अपने देश के लिए खेलने और ऊंचा ओहदा देने का प्रस्ताव दिया तो मेजर ध्यानचंद ने यह कहकर ठुकरा दिया कि, ‘मैं अपनी मातृभूमि से जुड़कर उसकी सेवा करना चाहता हूं।’ वे अकेले भारतीय थे जिन्होंने आजादी से पहले भारत में ही नहीं, जर्मनी में भी भारतीय झंडे को फहराया। उस समय हम अंग्रेजों के गुलाम थे और भारतीय ध्वज पर प्रतिबंद था। इसलिए उन्होंने ध्वज को अपनी नाईट ड्रेस में छुपाया और उसे जर्मनी ले गए। इस पर अंग्रेजी शासन के अनुसार उन्हें कारावास हो सकती थी लेकिन हिटलर ने ऐसा नहीं किया।

ऐसे महान देशभक्त खिलाड़ी का देश आज खेलों में फिसड्डी है तो यह हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। आजादी के सात दशक के बाद भी देश में खिलाड़ी आर्थिक तंगहाली से जूझने को विवश है। इसका उदाहरण है कॉमनवेल्थ खेलों में वेटलिफ्टिंग में देश को स्वर्ण पदक दिलाने वाली पूनम यादव। पूनम यादव के खेल के लिए उनके पिता को अपनी भैंस बेचनी पड़ी। और तो और जब राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीती तो उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वे अपनी खुशी बांटने के लिए मिठाई खरीद सकें। क्या इस तरह देश में खेल क्रांति आयेगी? खेलों में महाशक्ति अमेरिका में सभी 3.60 करोड़ विद्यार्थियों के लिए खेल अनिवार्य है। हर साल वहां कोई 4 से 5 करोड़ युवा खिलाड़ियों के टैलेंट पूल यानी प्रतिभा से मेधावी खिलाड़ी चुने जाते हैं और उन्हें अलग-अलग सेन्टर्स में निखारा जाता है। चीन में खेल स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। इसके अतिरिक्त चीन में 5 लाख से ज्यादा स्पोर्ट्स स्कूल है जहां हर गांव, हर गली से छांटकर मेधावी खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए अडवांस प्रशिक्षण दिया जाता है। जबकि भारत में खेल स्कूलों का अभाव तो है ही, दूसरा स्कूलों में खेल अनिवार्य नहीं होने के कारण खिलाड़ियों की प्रतिभा निखरने की बजाय दबी ही रह जाती है। दरअसल, आज देश में खेल खेलने वालों से ज्यादा खेल की बात करने वाले लोग हैं, और उससे भी ज्यादा खेलों को और खिलाड़ियों को गरियाने वाले लोग है। हमारी शारीरिक क्षमता और कुशलता किसी से कम नहीं है। फिर भी हम खेलों में फिसड्डी रहते हैं तो इसलिए कि खेलों के प्रति हमारा रवैया बीमार और विकलांग है।
बीते दिनों छत्तीसगढ़ में एक महिला के बैंक अकाउंट से ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में करीब सवा तीन लाख रुपये कट गए। ये रुपये महिला के 12 साल के बेटे ने गेम में अपडेट्स के साथ खरीदे गए हथियारों को लेने में खर्च कर दिए। 12 साल के बेटे से जब पूछा गया तो उसने बताया कि उसे ऑनलाइन गेम फ्री-फायर की लत लग गई थी। गेम में पूरी तरह से दीवाना होने के बाद गेम के हथियार खरीदने का मन हुआ और मां के मोबाइल नंबर को बैंक अकाउंट से लिंक करके ट्रांजेक्शन करने लगा। बदलते परिवेश में बच्चों के दोस्त, खेल का मैदान, पार्क, सबकुछ इंटरनेट के एक एप्लिकेशन तक सिमट कर रह गया है। आउटडोर गेम्स से ज्यादा महत्व इंटरनेट गेम्स को दिया जाने लगा है। इंटरनेट पर रोमांच से भरे ये ऑनलाइन गेम अब बच्चों के दिलो-दिमाग पर हावी हो रहे हैं। कंप्यूटर या मोबाइल की छोटी स्क्रीन पर एक ऐसी आभासी दुनिया होती है, जो बड़ों को भी अपनी ओर लुभाती है। ऐसे में छोटे बच्चों का इनकी ओर आकर्षित होना लाजमी है। दरअसल, ऑनलाइन गेमिंग के दौरान स्क्रीन हर सेकेंड एक नए अवतार में नजर आती है। कई ऑनलाइन गेम मल्टीप्लेयर होते हैं, जिसमें अनजान बच्चे भी ग्रुप बनाकर एक साथ गेम खेलते हैं। बच्चे एक दूसरे को हराने और जीतने की दौड़ में लगातार कई राउंड खेलते हैं। 10 मिनट का खेल कब घंटे-दो घंटे में बदल जाता है, बच्चों को पता ही नहीं चलता।
एक जमाना था जब मां बेटे से कहती थी कि बेटा खेलकर घर वापस कब आओगे? और एक आज का जमाना है जब मां बेटे से कहती है कि बेटा खेलने के लिए घर से कब जाओगे? निश्चित ही बदलते तकनीकी दौर में आधुनिक पीढ़ी की मैदान के खेलों के प्रति उत्पन्न होती अरुचि और मोहभंग चिंता का विषय है। गौर करें तो इस स्थिति के पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। पहला तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (स्मार्टफोन, मोबाइल, लैपटॉप) इत्यादि के उपयोग में तीव्रगामी परिवर्तन आना। छोटी उम्र में बच्चों के हाथों में मोबाइल आने के बाद वे अपना सारा समय इसमें ही गंवा देते हैं। उनका खेलना, खाना-पीना सबकुछ ऑनलाइन होता जाता है। मोबाइल पर ज्यादा समय बिताने से बच्चों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है। मोबाइल की स्क्रीन पर ज्यादा देर तक आंखें लगाने से आंखों की रोशनी कम हो जाती है। वहीं सिरदर्द, माइग्रेन और मांसपेशियों में दर्द जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।

वैज्ञानिकों ने हालिया अध्ययन में बताया है कि 5-10 साल की उम्र के बच्चे, जिनका स्क्रीन टाइम इन दिनों काफी बढ़ गया है, उनमें एक साल बाद वजन बढ़ने की संभावना काफी अधिक देखी जा रही है। अध्ययन में पाया गया कि सभी प्रकार के स्क्रीन पर बिताया गया प्रत्येक अतिरिक्त घंटा उच्च बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हो सकता है। एक ही जगह घंटों बैठकर मोबाइल गेम व वीडियो गेम खेलना, टीवी देखना और साथ ही कुछ न कुछ खाते रहना ये भी बच्चों में मोटापा बढ़ने की बड़ी वजह हैं। जर्नल ‘पीडियाट्रिक ओबेसिटी’ में प्रकाशित अध्ययन के निष्कर्ष में वैज्ञानिकों ने बताया है कि अगर इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया तो मोटापे की यह समस्या बच्चों के लिए भविष्य में गंभीर रोगों का कारण बन सकती है। अध्ययन की शुरुआत में अधिक वजन या मोटापे से ग्रस्त बच्चों का जो आंकड़ा 33.7 प्रतिशत था वह एक साल बाद बढ़कर 35.5 प्रतिशत हो गया है। वयस्कता के शुरुआती आयु वर्ग वाले बच्चों में भी इस तरह की समस्या ज्यादा देखी गई है।

मैदान के खेलों का क्रेज खत्म होने का दूसरा कारण मैदानों की निरंतर कमी होना है। भौतिकवादी सुविधाओं के मोह में मैदानों की जगह दस-बारह मंजिल की अट्टालिका का निर्माण किया जाने लगा है। गांव में तो आज भी खुली जगह बच्चों को खेलने के लिए आमंत्रण देती है लेकिन शहर की घुटन भरी जिंदगी में निकटवर्ती कोई मैदान बच्चों के खेलने के लिए सुरक्षित नहीं रहा है। जिसके कारण बच्चे खाली समय में बोरियत कम करने के लिए अनायास ही मोबाइल और कंप्यूटर के खेलों के शिकार हो जाते हैं। तीसरा कारण यह भी है कि हमारे समाज में अक्सर बड़े-बुजुर्गों के मुंह से कहावत सुनने को मिलती है कि ‘खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब’ और ‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ बच्चों को केवल किताबों तक ही सीमित करती हैं। पढ़ाई के साथ खेल भी बहुत जरूरी है। मानव मस्तिष्क एक हद तक पढ़ाई कर सकता है। अतः मन को हरा-भरा रखने और शरीर को तरोताजा करने के लिए खेलों को खेलना भी अति-आवश्यक है। चौथा कारण है अभिभावक के पास समय का अभाव होना। रोजमर्रा की जिंदगी में धनार्जन करने की प्रवृत्ति ने हर किसी को व्यस्त कर दिया है। दूसरों के लिए तो छोड़िए, स्वयं और परिवार के लिए भी समय निकालना व्यक्ति के लिए दूभर होता जा रहा है। ऐसे में आज के मासूमों को कौन बचपन के खेल (डिब्बा स्पाइस, सतोलिया, लुका छिपी, लंगड़ी, कबड्डी, खो-खो) इत्यादि के बारे में बताएगा? जिससे मासूम मन में इन खेलों के प्रति खेलने की जिज्ञासा उत्पन्न हो सके। बेशक, कुछ गलतियां तो अभिभावकों की भी हैं, जिन्हें समय रहते सुधारा जा सकता है।
आज हमें ऐसी नीतियों का निर्माण करने की जरूरत है, जिससे खेलों को सम्मानित मुकाम हासिल हो सके। खेल केवल मनोरंजन तक ही सीमित न हो, बल्कि यह एक कैरियर के तौर पर भी अपनाया जाए। अगर हम चाहते हैं कि खेल की दुनिया में देश की अमिट पहचान बने तो इसके लिए हमें खेलों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। और उसके विकास के लिए लगातार प्रयास करने होंगे। इसके लिए सरकार को निजी, गैर सरकारी, सामुदायिक संगठनों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। निजी संस्थाओं द्वारा शोध और शैक्षणिक गतिविधियों के लिए छात्रवृत्ति एवं वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, ठीक उसी प्रकार क्या हम खिलाड़ियों को आर्थिक मदद और प्रोत्साहन उपलब्ध नहीं करा सकते? यदि हम इंग्लैंड से प्रेरणा लें तो आज भी वहां सरकारी अनुदान उतना अधिक नहीं है जितना निजी क्षेत्रों द्वारा खेलों को प्रोत्साहन दिया जाता है।
ये सही है कि आज के तकनीकी युग में बच्चों को मोबाइल और कंप्यूटर से दूर करना उनके भविष्य के लिए ठीक नहीं है लेकिन यह कौन ध्यान रखेगा कि बच्चे इन यंत्रों का कितना और किस तरह सकारात्मक उपयोग कर रहे हैं? आखिर हम कब तक रोज नये-नये प्रकार के लॉन्च हो रहे इन मोबाइल गेमों पर रोक लगाएंगे। समस्या का असल समाधान तो बच्चों में मैदानी खेलों के प्रति आकर्षण पैदा करने और देश में खेल संस्कृति विकसित करने से ही होगा। और ये तभी संभव है जब अभिभावक और सरकार दोनों इस समस्या को गंभीरता से लेकर सोचना शुरू करें। टेक्नोलॉजी का आविष्कार इंसान की मदद करने, बोझ कम करने और समय बचाने के लिए किया गया था, लेकिन आज इंसान उसका गुलाम बन गया है। बचपन से ही मोबाइल के साथ बड़े होने वाले बच्चे इसके इतने आदी हो गए हैं कि खेल और किताबों से ज्यादा उनका ध्यान मोबाइल पर लगने लगा है। आधुनिक युग में रहने वाले माता-पिता को यह बात समझनी चाहिए कि बच्चों की बदलती परवरिश के इस माहौल में उन्हें तकनीक के आदी और गुलाम होने से बचाया जाए और तकनीक का बेहतर इस्तेमाल सिखाया जाए।
आज जरूरत है कि मैदान के खेलों के प्रति बाल और युवा पीढ़ी का ध्यान आकर्षित किया जायें। उन्हें बताया जायें कि मोबाइल और कंप्यूटर पर क्रिकेट खेलने से कई अधिक मजा मैदान में जाकर क्रिकेट खेलने में है। भारत सदैव से ही खेल परंपरा का संवाहक रहा है। यहां पी वी सिंधु, साइना नेहवाल, झूलन गोस्वामी, दीपिका कुमारी, दीपा कर्माकर, साक्षी मलिक, पी.टी. उषा, मिल्खा सिंह, महेंद्र सिंह धोनी, बाईचुंग भूटिया, पंकज आडवाणी, अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार, सचिन तेंदुलकर जैसे कई महान खिलाड़ियों ने दमखम के साथ विश्वपटल पर तिरंगे का नाम ऊंचा किया है। आज इन्हीं सब से प्रेरणा लेकर बच्चों में खेलों के प्रति उत्साह और आशा का माहौल बनाने की जरूरत है। क्योंकि देश की एकता को बरकरार रखने के लिए भाईचारे, प्रेम और मैत्री की भावना इन्हीं खेलों से विकसित की जा सकती है। इसलिए खेल संस्कृति को एक बार फिर से जीवित करने की जरूरत है।
– देवेंद्रराज सुथार
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