
ब्रह्माण्ड की कई संकल्पनाओं ने मानव मस्तिष्क को सदियों से उलझन में डाल रखा है। ब्रह्मांड रहस्यों और विचित्रताओं से भरा हुआ है। जैसे-जैसे ब्रह्मांड के बारे में हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती गई, वैसे-वैसे और ज्यादा विचित्रताएँ हमारे सामने आती गईं। ब्रह्माण्ड की इन्हीं विचित्रताओं में से एक है – डार्क मैटर। डार्क मैटर, मैटर यानि पदार्थ का वह रूप है जिससे हम अभी भी अनजान हैं, क्योंकि यह न तो इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन को सोखता है और न ही छोड़ता है। इसलिए इसे धरती या स्पेस में मौजूद किसी भी दूरबीन की मदद से नहीं देखा जा सकता। इसी वजह से खगोल विज्ञानी अब तक डार्क मैटर के अस्तित्व को प्रायोगिक रूप से साबित नहीं कर सके हैं।
बहरहाल, बीते दिनों ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के खगोल विज्ञानियों ने ऑनलाइन प्री-प्रिंट जर्नल ‘एआरएक्सआईवी.ओआरजी’ में प्रकाशित अपने एक रिसर्च पेपर में डार्क मैटर का पता लगाने के एक नए तरीके का विस्तृत ब्यौरा दिया है, जिसके तहत पृथ्वी के एटमॉस्फियर यानि वायुमंडल को डार्क मैटर डिटेक्टर के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इसमें उसी मेथड का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसका वैज्ञानिक उल्का पिंडों (मेटेरोइट्स) की खोज करने के लिए दशकों से करते आए हैं।
पृथ्वी के एटमॉस्फियर में दाखिल होते हुए उल्कापिंड और डार्क मैटर के पार्टिकल्स दोनों ही आयोनाइजेशन पैदा करते हैं। इस तरह के रेडिएशन फ्री इलेक्ट्रॉन्स और बिजली के संचालन में सक्षम परमाणु छोड़ते हैं। उल्का-ट्रैकिंग रडार से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स इन फ्री इलेक्ट्रॉन्स को उछाल देती हैं। इससे उल्कापिंड की मौजूदगी का पता चलता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस टेक्निक की मदद से पूरी पृथ्वी को डार्क मैटर के पार्टिकल्स को डिटेक्ट करने वाले डिवाइस के रूप में तब्दील किया जा सकता है।
सबसे पहले स्विस खगोल विज्ञानी फ्रिट्ज ज्विकी ने 1933 में डार्क मैटर की मौजूदगी का अनुमान लगाया था। वास्तव में डार्क मैटर का अस्तित्व है, इसको अपने ऑब्जर्वेशंस से 1975 में साबित किया अमेरिकी खगोल विज्ञानी वेरा रुबिन ने। एस्ट्रोनॉमिकल कैलकुलेशन्स से पता चला है कि हमारे ब्रह्मांड का 25 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर के रूप में ऐसे पदार्थ से बना हुआ है, जिसे हम देख नहीं सकते। हालांकि पिछले 30-40 सालों में कई एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जर्वेशंस की बदौलत डार्क मैटर की मौजूदगी को समर्थन मिला है, फिर भी इसकी संरचना की पहचान खगोल विज्ञान की सबसे बड़ी अनसुलझी पहेलियों में से एक है क्योंकि यह प्रकाश के साथ बिल्कुल भी प्रतिक्रिया नहीं करता। इसलिए इसकी मौजूदगी की पुष्टि और इसके गुणों का अध्ययन सिर्फ इसके मैटर, एनर्जी तथा जायंट कॉस्मिक स्ट्रक्चर्स (जैसे- गैलेक्सी, ब्लैक होल्स, गैलेक्सी क्लस्टर्स, सुपरक्लस्टर्स आदि) पर इसके गुरुत्वीय प्रभाव (ग्रेविटेशनल इफ़ेक्ट्स) द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से ही निर्धारित किया जा सकता है। यानि डार्क मैटर का सिर्फ गुरुत्वीय प्रभाव ही दिखने वाले पदार्थों यानी बैर्योनिक मैटर्स पर पड़ता है। यही वजह है कि अभी तक हम केवल यही जान पाए हैं कि इसमें कौन से कॉम्पोनेंट्स नहीं हैं, न कि यह कि इसमें कौन से कॉम्पोनेंट्स मौजूद हैं!
हालिया अध्ययन के अगुआ तथा ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में फिजिक्स और एस्ट्रोनॉमी के प्रोफेसर जॉन बीकॉम के मुताबिक जहां खगोल विज्ञानी कम द्रव्यमान में डार्क मैटर के मात्र सूक्ष्म पार्टिकल्स को देखते हैं, वहीं इस नए अध्ययन का मकसद डार्क मैटर पर बड़े पैमाने पर खोज को उन्नत बनाना है। यानी ज्यादा द्रव्यमान वाले पिंडों के पार्टिकल्स जो अमूमन ट्रेडीशनल डिटेक्टर्स की गिरफ्त से बाहर होते हैं। बीकॉम और उनके सहयोगियों का कहना है कि डार्क मैटर की खोज करना इतना कठिन इसलिए है क्योंकि हो सकता है कि उसके पार्टिकल्स ज्यादा द्रव्यमान वाले हों। अगर डार्क मैटर का द्रव्यमान कम है तो ये कण सामान्य होंगे, लेकिन यादि द्रव्यमान ज्यादा होगा तो ये कण दुर्लभ होंगे। इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव दिया है कि अगर डार्क मैटर के पार्टिकल्स बड़े पैमाने (मैक्रो लेवल) पर हैं, तो उल्काओं को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली टेक्निक डार्क मैटर का पता लगा सकती है।
बीकॉम का कहना है कि उन्हें इस बात पर बेहद हैरानी है कि किसी ने भी उल्का-ट्रैकिंग रडार सिस्टम या फिर उसके द्वारा पहले से इकट्ठा किए गए डेटा का इस्तेमाल कर डार्क मैटर की खोज करने की कोशिश नहीं की। इस टेक्निक में सटीकता और संवेदनशीलता तो है ही, साथ में इसके नतीजों की भी जांच की जा सकती है। बहरहाल, शोधकर्ताओं के मुताबिक भविष्य में इस टेक्निक की मदद से डार्क मैटर की पहेली को सुलझाने के अलावा ब्रह्माण्ड की संरचना और उसके स्वरूप को समझने में भी सहायता मिल सकती है।